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  • Friday, 22 November 2024
रेगिस्तान के कल्प पशु ऊंट की देश में घटती संख्या, विलुप्त होने की ओर हुआ अग्रसर जानिए कारण?

रेगिस्तान के कल्प पशु ऊंट की देश में घटती संख्या, विलुप्त होने की ओर हुआ अग्रसर जानिए कारण?

Dr Mudita Popli :

असाधारण औषधीय गुणों के लिए पहचाने जाने वाले ऊंट को संरक्षित करने के लिए राजस्थान सरकार की नीतियों के पुनरावलोकन की आवश्यकता

 

बीकानेर।रेगिस्तान के कल्प पशु ऊंट के दूध के असाधारण औषधीय गुणों और चिकित्सकीय मूल्य के बावजूद ऊंटों की घटती संख्या और संरक्षण की आवश्यकता है। भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के तत्वावधान में ऊंटों की घटती संख्या को देखते हुए राजस्थान के बीकानेर जिले में राष्ट्रीय उष्ट्र अनुसंधान केंद्र स्थापित किया गया था। सन 1984 से स्थापित केंद्र के माध्यम से राजस्थान के कल्प पशु ऊंट के संरक्षण एवं संवर्धन के लिए लगातार प्रयास किए जाते रहे हैं।  

लेकिन वास्तविक स्थिति ये है कि संपूर्ण भारत में अब केवल ढाई लाख ऊंट बचे हैं। जिसमें से सवा दो लाख के करीब ऊंट केवल राजस्थान में है ।ऊंटों की घटती संख्या, उनके संरक्षण तथा संवर्धन के लिए राष्ट्रीय अनुसंधान केंद्र द्वारा लगातार प्रयास किए जा रहे हैं। बीकानेर में ऊंट के दूध की देश की पहली दुग्ध शाला सन 2008 में स्थापित हुई थी। बीकानेर के सुदूर ग्रामीण इलाकों में राइका, रेबारी, घुमंतू जाति द्वारा ऊंटों को पालने का कार्य किया जाता रहा है। इसी दौरान डायबिटीज के क्षेत्र में किए गए एक सर्वे के दौरान यह बात निकलकर आई कि इन जातियों के लोग, क्योंकि ऊंटनी का दूध पीते हैं इसलिए इन जातियों में डायबिटीज नाम की बीमारी ही नहीं होती। इसके बाद इस दिशा में कार्य गति से शुरू हुआ और 2008 में यहां देश की पहली उष्ट्र डेयरी यानी दुग्ध शाला स्थापित की गई। यहां के ऊंट पालकों से बात की गई तो यहां के रायका जाति के लोगों का कहना है कि "दूध और पुत्र कभी बेचे नहीं जाते" , हम पाते हैं कि इन जातियों में ऊंट के दूध को बाहर नहीं बेचने की एक प्रथा थी। रायका जाति के बीकानेर के सिंधु ग्राम निवासी रूघाराम का कहना है कि पहले गांव में हर आदमी ऊंट रखता था इसका कारण यह था कि पहले जगह की कमी नहीं थी, खेती-बाड़ी से लेकर कुएं से पानी निकालने के कार्य, भार ढोने के कार्य इत्यादि सभी ऊंट के माध्यम से किए जाते थे। यहां तक कि शादी और बारात में जाने के लिए भी ऊंटों को ही काम में लिया जाता था। यहां तक कि जब रायका जाति के लोग मरुस्थल में ऊंटों को लेकर निकलते थे तो रास्ते में इनके दूध को ही पानी और भूख मिटाने के लिए काम में लेते थे।क्योंकि मरुस्थल में पानी की कमी है। ऊंट घटने के अन्य कारणों के बारे में पूछने पर उन्होंने कहा कि युवा अब ऊंट को संभालने को भी तैयार नही है, क्योंकि ऊंट को लेकर गर्मी में घूमना भी संभव नहीं और साथ ही साथ खेती में ऊंट का स्थान अब गाड़ियों ने ले लिया है। उनका कहना है कि अब ऊंटों के चरने के लिए जंगल नहीं रहे इसके अलावा ऊंट को पालना भी अधिक महंगा हो गया है उसमें सरकार का योगदान जरूरी हो गया है।

 

 ऊंट का दूध नहीं बेचने की सोच को तोड़ने के लिए भी ऊंट अनुसंधान केंद्र द्वारा प्रयास किए गए हैं। बीकानेर के पास केसर देसर गांव में रहने वाले एक अन्य ऊंट पालक रामस्वरूप का कहना है कि पहले उनके परिवार के 10 घरों में 600 से 700 तक हुए थे जिनकी संख्या अब उनके घरों में केवल 10 तक सिमट के रह गई है। उनका कहना है कि हम मनुष्यों के रहने के लिए ही स्थान कम पड़ने लगा है तो ऊंट को पालना तो मुश्किल ही हो गया है। ऊंटों का चारा बहुत महंगा हो गया है जो उनकी परिधि से बाहर है। वो साफ कहते हैं कि रायका जाति अभी भी ऊंट का दूध बेचने का कार्य नहीं करती अन्य जातियां ऊंट का दूध बेचती है परंतु रायका जाति में अभी भी ऊंट का दूध बेचने को लेकर कुछ वर्जनाएं बरकरार हैं। उनका कहना है कि ऊंट केवल बोझ ढोने का ही कार्य करता है। राज्य सरकार द्वारा इस दिशा में एक प्रयास जरूर किया गया है कि ऊंटनी के बच्चा होने पर दस हजार रुपए की आर्थिक सहायता दी जाती है परंतु उनका कहना है कि यह आर्थिक सहायता केवल 2 या 4 महीने तक के चारे के लिए पूरी हो जाती है। उसके बाद फिर उस ऊंट को पालना मुश्किल हो जाता है। बीकानेर के पास स्थित नाल ग्राम बड़ी के वाशिंदे और खेतीहर किसान जेठाराम का कहना है कि पहले उनके परिवार में नौ ऊंट थे जिनकी संख्या अब मात्र एक रह गई है। इसका कारण बताते हुए वो कहते हैं कि महंगाई बहुत हो गई है तथा ऊंट का चारा बहुत महंगा हो गया है जो खरीदना उनके लिए मुश्किल हो गया है। उनका कहना है कि ऊंट द्वारा बोझा ढोने के जो कार्य किए जाते थे वह अब पिकअप गाड़ियों द्वारा करवाए जाने लगे हैं। इसी प्रकार पहले ऊंट गाडा चलाने वाले बीकानेर निवासी राजू का कहना है कि अब उन्होंने ऊंट रखने बंद कर दिए हैं और वह खुद दूसरों के यहां गाड़ी चलाने का कार्य कर रहे हैं। उल्लेखनीय है कि रायका जाति के लोग मूलतः खेती और पशुपालन से जुड़े हैं। इन्हीं लोगों द्वारा ऊंटों का पालन पोषण किया जाता था परंतु अब इन्होंने भी खेती के साधनों के रूप में ऊंटों के इस्तेमाल को कम कर दिया है।

 

हालांकि ऊंट अनुसंधान केंद्र के निदेशक का कहना है कि उनके केंद्र द्वारा समझाने के बाद रायका जाति के लोगों ने भी ऊंट के दूध की बिक्री प्रारंभ की है पर अभी भी यह संख्या काफी कम है। राजस्थान में ऊंट को सदैव धोरों का मित्र माना गया है।यहां की रेतीली तपती जमीन पर ऊंट अमृत तुल्य जीव है। राजस्थान में ऊंटों की घटती संख्या अपने आप में चिंता का कारण है, क्योंकि यह जीव अपने आप में कई खूबियां समेटे हैं। 

 

राजस्थान में ज्यादातर एक कूबड़ वाले ऊंट देखने को मिलते हैं,जबकि लेह लद्दाख में दो कूबड़ वाले ऊंट देखने को मिलते हैं। इन ऊंटों को संभालने की जिम्मेवारी भी बीकानेर के राष्ट्रीय उष्ट्र अनुसंधान केंद्र की है। 20 वर्ष पूर्व जहां इन ऊंटों की संख्या 50 से 55 थी इनकी सार संभाल करने के बाद यह संख्या लगभग 300 के करीब पहुंच गई है। लेह लद्दाख से आए ऊंट राजस्थान में जीवित नहीं रह पाए, परंतु यहां से भी दो ऊंटों को लेह लद्दाख भेजा गया है जो लेह लद्दाख की ठंडी वादियों में आराम से रह रहे हैं। हालांकि इनमें प्रजनन नहीं हो पाया है फिर भी सेंटर द्वारा इसे सफलता के रूप में देखा जा रहा है ताकि ईको टूरिज्म के क्षेत्र में इससे नवाचार हो सके।

 

 इस रिसर्च सेंटर में प्रधान वैज्ञानिक डॉ आर के सावल का कहना है कि ऊंट का दूध केवल पोषण की दृष्टि से ही महत्वपूर्ण नहीं है बल्कि इसका उपयोग अनेक बीमारियों में बहुत लाभप्रद पाया गया है। अन्य दूध की तुलना में इसमें कम वसा पाई जाती है तथा लवणों मुक्त कैल्शियम, विटामिन सी एवं सूक्ष्म पोषक तत्व जैसे लोहा, तांबा और जस्ते का प्रतिशत बहुत अधिक है। इसके दूध को असाधारण औषधीय गुणों के लिए पहचाना जाता है। यही कारण है कि राजस्थान के राष्ट्रीय उष्ट्र अनुसंधान केंद्र में ऊंट के दूध से बने चाय, कॉफी कुल्फी, लस्सी, पनीर, बर्फी, पेड़ा,खीर , आइसक्रीम और चीज़ विकसित किए गए हैं। यही नहीं ऊंट का दूध डेंगू , ऑटिज्म, डायबिटीज जैसी बीमारियों में बहुत उपयोगी है। इसके साथ साथ ऊंट की हड्डी, चमड़ा भी बहुत अधिक काम आता है।यहां तक की हाथी दांत से जो समान बनाए जाते हैं ,वही समान ऊंट की हड्डियों से भी बनाए जाने लगे हैं। जो उससे सुंदर तथा किफायती हैं। यही कारण है कि बीकानेर के राष्ट्रीय उष्ट्र अनुसंधान केंद्र से महाराष्ट्र के पुणे स्थित एक निजी अस्पताल तथा, पंजाब के फरीदकोट में जहां ऑटिस्टिक बच्चों के लिए एक प्राइवेट अस्पताल चल रहा है जैसी जगहों पर ऊंट का दूध निर्यात किया जा रहा है। बीकानेर के इस केंद्र में रोजाना 100 लीटर तक दूध का उत्पादन हो रहा है तथा इस दिशा में यहां पर वैज्ञानिक नए शोध करने के लिए प्रयासरत हैं।इसके साथ ही ऊंट के खून से एक एंटी स्नेक वेनम भी बनाया गया है जो कि राजस्थान में निकलने वाले एक विशेष तरह के सांप बांडी के काटने के इलाज की तरह उपयोग में लाया जा रहा है। ऊंट के दूध के अन्य उपयोगों में ब्यूटी प्रोडक्ट्स,बाजरा तथा रागी जैसे अनाजों के साथ बनने वाले अन्य खाद्य प्रोडक्ट भी लॉन्च की तैयारी में है। इसके बावजूद ऊंटों के संरक्षण को लेकर यह केंद्र चिंतित है।अगर इसके पीछे छिपे कारणों को तलाशें तो यह पाते हैं कि राजस्थान में आज का युवा ऊंट पालन नहीं करना चाहता क्योंकी ये बहुत महंगा है तथा कड़े नियमों के कारण ऊंट को राजस्थान से बाहर ले जाना भी संभव नहीं है तो उसके दूध एवं अन्य उत्पाद बाहर बनाने मुश्किल हैं। जबकि गुजरात में यह कार्य अमूल डेयरी के माध्यम से वृहद स्तर पर किया जा रहा है तथा वहां ऊंटों की संख्या में भी 7% तक वृद्धि देखने को मिली है। 

 

राजस्थान में नए जन्मे ऊंटों को पालने के लिए दस हजार तक की सहायता राशि राजस्थान सरकार द्वारा दी जा रही है परंतु ऊंट पालक इसे बहुत कम बताते हैं। हाल ही में जारी पशु गणना में ऊंटों की संख्या में 35% की कमी राजस्थान में देखी गई है। राष्ट्रीय ऊंट अनुसंधान केंद्र के निदेशक डॉ आर्तबंधु साहू बताते हैं कि राजस्थान में ऊंटों को राज्य पशु घोषित करने के बाद ऊंट की बिक्री के लिए या उसे बाहर ले जाने के लिए जिले के डीएम की अनुमति जरूरी है। ऊंट पालक जो कि एकदम ग्रामीण क्षेत्र में रहते हैं उन्हें डीएम से स्वीकृति लेने का ना तरीका पता है और ना ही लेना इतना आसान है, जिसके चलते ऊंट को आसपास के राज्यों में भी ले जाना संभव नहीं हो पा रहा है।जब आसपास के राज्यों में ऊंट होंगे ही नहीं तो उन से बने उत्पाद भी प्रयोग में नहीं आएंगे और ना ही इस दिशा में कार्य हो पाएगा।यह एक बहुत बड़ा अवरोध है। उनका कहना है कि केवल राज्य पशु का दर्जा देने से ऊंटों की संख्या में वृद्धि नहीं होगी, ऊंट की संख्या में वृद्धि करने के लिए नियमों का पुनरावलोकन करना होगा, परंतु राज्य सरकार इस दिशा में कोई भी कार्य नहीं कर रही है। उनका मानना है कि राज्य सरकार की उदासीनता के चलते ऊंट पालक इस कार्य से दूर होते जा रहे हैं तथा ऊंटो को पालने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखा रहे हैं।

 

एक तरफ भारत सरकार दूसरे देशों से चीते आयात कर रही है ताकि उन्हें यहां संरक्षित किया जा सके, वहीं दूसरी ओर एक ऐसा पशु जो हर क्षेत्र में एक वरदान की तरह है उसे बचाने के लिए कोई पुख्ता नीति लागू नहीं की जा रही है। जबकि राजस्थान में ऊंट यहां की पहचान है। इसके बावजूद कभी दौड़ प्रतियोगिताओं, कभी सजावट प्रतियोगिताओं के माध्यम से जनता को इसके साथ जोड़ने की कोशिशें लगातार की जा रही है परंतु सकारात्मक परिणाम प्राप्त नहीं हो पा रहे हैं। इसलिए सरकार और प्रशासन को इस दिशा में अधिक कारगर होकर नई कार्य योजना बनाने की आवश्यकता है। ताकि ऊंटों की घटती संख्या पर विराम लगाया जा सके और राजस्थान का यह पशु केवल बच्चों की किताबों में चित्रों तक सीमित कर ना रह जाए। 

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