इंडिपेंडेंट फिल्मों के सामने कई बाधाएं मौजूद: Kiran Rao
मुंबई। फिल्ममेकर किरण राव ने कहा कि डिजिटल प्लेटफॉर्म्स ने फिल्मों की पहुंच तो बढ़ाई है, लेकिन थिएटर में जाकर फिल्म देखने का अनुभव आज भी दर्शकों के लिए खास मायने रखता है। फिल्ममेकर किरण राव ने 14वें धर्मशाला इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल के दौरान अपने विचार साझा किए। किरण राव ने बताया कि पिछले कुछ वर्षों में फिल्म निर्माण और वितरण के तरीके काफी बदले हैं, लेकिन इंडिपेंडेंट फिल्मों के सामने अब भी कई बाधाएं मौजूद हैं। उन्होंने भारत की ऑस्कर प्रविष्टि फिल्म होमबाउंड का उदाहरण देते हुए कहा कि अब दर्शकों का स्वाद पहले से कहीं ज्यादा बदल चुका है। “पहले लोग केवल बड़े सितारों वाली फिल्मों को पसंद करते थे, लेकिन अब दर्शक नई कहानियों, नए चेहरे और अनोखे विषयों की ओर भी आकर्षित हो रहे हैं। इसका बड़ा श्रेय ओटीटी प्लेटफॉर्म्स को जाता है, जिन्होंने फिल्मों को घर-घर तक पहुंचाने का काम किया है,” उन्होंने कहा। हालांकि, राव ने एक अहम सवाल भी उठाया “क्या दर्शक इंडिपेंडेंट फिल्मों के लिए पैसे देने को तैयार हैं?” उन्होंने कहा, “यह हर फिल्ममेकर के मन में उठने वाला सबसे बड़ा सवाल है। क्या कोई दर्शक 150 रुपये देकर होमबाउंड या सबर बोंडा जैसी फिल्में देखने थिएटर तक जाएगा? अगर लोग नहीं आएंगे, तो इतनी मेहनत, समय और संसाधन लगाने का क्या मतलब रह जाएगा?” किरण राव, जो पिछले एक दशक से इंडिपेंडेंट सिनेमा को प्रोत्साहित कर रही हैं, ने बताया कि इन फिल्मों की सबसे बड़ी चुनौती उनकी डिस्ट्रिब्यूशन है। उन्होंने कहा, “फिल्में बन जाती हैं, लेकिन उन्हें सही मंच तक पहुंचाना मुश्किल है।
बड़े बजट की फिल्मों की तुलना में इंडिपेंडेंट फिल्मों को थिएटर स्क्रीन या प्रमुख प्लेटफॉर्म्स पर जगह पाना आज भी कठिन है।” उन्होंने यह भी कहा कि इंडिपेंडेंट सिनेमा भारतीय फिल्म इंडस्ट्री की रचनात्मक आत्मा है, लेकिन इसके लिए दर्शकों का सहयोग जरूरी है। “अगर हम चाहते हैं कि विविधता भरी कहानियां कही जाएं, तो हमें भी ऐसी फिल्मों को देखने और समर्थन देने की आदत डालनी होगी,” उन्होंने कहा। किरण राव का यह बयान आज के दौर में इंडिपेंडेंट फिल्ममेकर्स के संघर्ष और दर्शकों की जिम्मेदारी दोनों पर गहराई से रोशनी डालता है। मालूम हो कि भारत में इंडिपेंडेंट फिल्मों का सफर हमेशा से चुनौतीपूर्ण रहा है। शानदार कहानियों और उम्दा अभिनय के बावजूद इन फिल्मों को सही दर्शकों तक पहुंचाना अक्सर सबसे कठिन काम बन जाता है।
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